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Shishu Mandir - An Introduction : शिशु मंदिर - एक परिचय

 शिशु मंदिर - एक परिचय

Shishu Mandir - An Introduction

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शिशु के कोमल मन में सद् शिक्षा और ज्ञानरुपी प्रकाश से प्रकाशित करने का कार्य गुरुकुल से विकसित  होकर आज विद्यालय , महाविद्यालय और विश्व विद्यालय तक पहुंचा है । विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों के द्वारा शिक्षा का प्रचार - प्रसार का कार्य सुदीर्घ और व्यापक रूप से चल रहा है । विद्यालय एक मंदिर है । सरस्वती शिशु मंदिर वर्तमान ज्ञानरूपी गंगा की धारा प्रवाहित कर ज्ञानामृत का संचार कर रहा है । इस क्रम में सरस्वती शिशु मंदिर की भूमिका अक्षुण्ण है । 



शिक्षा प्रणाली के कई माध्यम और प्रक्रिया में से शिशु मंदिर की शिक्षण प्रक्रिया संस्कार रूपी रथ पर सवार होकर अनुशासन रूपी घोड़े द्वारा , सदाचार रूपी लगाम से , मनन रूपी सारथी से विश्वविजेता बनने की राह पर धावमान है । समाज के उपेक्षित वर्गों के सर्वांगीण विकास और कल्याण के निमित्त एक संस्था का गठन श्रीहरि वनवासी विकास समिति के रुप में हुआ । बहुमुखी कार्य और समाज की उन्नति प्रकल्प में संकल्प लेकर यह शिक्षण संस्थान , सेवा संस्थान का गठन हुआ । सरस्वती शिशु मंदिर अखिल भारती , विद्या भारती शिक्षण संस्थान का अंगीभूत इकाई है । 


समाज को नई सृजन क्षमता प्रदान कर बालक - बालिकाओं समाज के कर्णधार बनाने के लिए , उनके चरित्र निर्माण के उद्देश्य से विद्यालय में अनुशीलनात्मक शिक्षा प्रदान की जा रही है । यहाँ सुशिक्षा और व्यवहारिक ज्ञानामृत आकंठ पीकर भावी कर्णधार जगत में नव जागरण लाने में उन्मुख हैं । यहाँ अध्ययनरत बालक - बालिकाओं को भैया - बहन तथा अध्यापन करने वाले अध्यापक अध्यापिकाओं को आचार्य - आचार्या के नाम से सम्बोधित किया जाता है । एक आचार्य का अभिप्राय केवल अध्यापन से नहीं बल्कि विद्यार्थिओं के सम्पूर्ण मनोवृत्ति को अपने आचरण के माध्यम से ऐसे साँचे में ढालने से है कि वे वास्तव में अमृतमय मानवता के अधिकारी हो सके । अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से जग को प्रकाशमय कर सकें । 


वर्तमान अर्थवादी दुनिया में व्यक्ति यश , प्रतिष्ठा और धन की लालच में अपनेपन की भावना को विस्मृत कर दिया है । अपने सुध - बुध खोकर स्वंय को खोखला बना दिया है । ऐसी परिस्थितियों में नवचेतना जागृत करने वालों की आवश्यकता है , जो परिवर्तन ला सकें । राजनीति के प्रभाव से शिक्षा व्यवस्था बहुत ही कमजोर हो चुकी है । शिक्षा मजाक का एक पर्याय बन गया है  । विपत्ति रूपी काल झंझा इसे कभी भी चूर - चूर कर सकता है । " क्रान्ति का अग्रदूत" शिक्षक को ही आख्या दिया गया है । प्राचीन काल से लेकर वर्तमान भारतवर्ष में गठन मूलक कार्यों की पृष्ठभूमि की संरचना शिक्षक द्वारा ही संभव हुए हैं । परंतु वर्तमान परिस्थिति के दबाव में शिक्षक समाज संस्कार के सामने गूँगे , बहरे और असहाय बन गये हैं ।

 गोविन्द से परिचित कराने वाले गुरूदेव की यह दयनीय स्थिति रही तो - चर्वी छाई आँखों से क्या हम भटक न जाएंगे ? टटोल - टटोल कर क्या जीवन के तुंग - श्रृंग पर आरोहण कर पाएंगे ? यह संभव होगा कभी ! असंभव है । कदापि संभव नहीं ।

 शिक्षा के माध्यम से क्रान्ति लाना होगा । "जगत की जय हो " नारा नहीं , धारा जोड़कर विचार कान्ति से समाज की गौरव - गाथा का प्रचार करना है । यह तभी संभव है जब शिक्षक / शिक्षिका  एक आचार्य / आचार्या बन सकें । आकाशधर्मी गुरु बनकर सबके हृदय में ज्ञान का बीज वपन कर सके । केवल विद्यालय में पढ़ाकर अपना कर्त्तव्य समापन न समझकर शिशु के चरित्र को एक निपुण चित्रकार की भाँति सँवार सकेंगे । यह करने से पहले आचार्य को यह ज्ञात होना आवश्यक है कि - कः  अहं? अर्थात् “ मैं कौन हूँ ? " इस प्रश्न का उत्तर स्वंय में ढूँढकर उन्हें पूर्णता अर्जन कर तैयार होना होगा जगत को नई राह दिखाने के लिए । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए शिशु मंदिर समाज को जोड़ने तथा प्रेरणाप्रद शिक्षा प्रक्रिया से सुधारने के कार्यों में निरंतरता बना रखा है । इसका विकास रथ गतिमान है । 


किसी व्यक्ति विशेष में गुण उसका सर्वोत्तम परिचय है । आज विभिन्न संस्थानों में व्यक्ति को अपना परिचय पत्र जारी करना पड़ता है । दूसरा , उसे एक आचरण प्रमाण पत्र भी दिया जाता है । लेकिन यह शिक्षण संस्थान स्वयं या समूह में एक मिशाल है । इससे जुड़े किसी सदस्य को न तो कोई विशेष परिचय की आवश्यकता है और न ही परिचय पत्र की । उसके आचरण तथा व्यवहार से पता चलता है कि वह शिशु मंदिर परिवार का एक सदस्य है । सचेतनशीलता उसका स्वभाव है । स्वाभिमान गुण , सेवा - भाव कर्म, ज्ञान अलंकार है । दृढ़ इच्छा शक्ति , तीव्र आकांक्षा और तन - मन - वचन से कर्म करके राष्ट्रव्यापी प्रगति के मार्ग प्रशस्त कर नवयुग का सूत्रपात करना ही उसका ध्येय है । ज्ञान , गरिमा , शक्ति और साहस के साथ आगे बढ़ना और बढ़ाना है । सभ्य , सुशिक्षित और आत्मनिर्भरशील समाज का सृजन करना है । अपने अन्तर्निहित क्षमता को जगाना तथा उन्मुक्त भावनाओं को चित्त में भरकर आमरण जीवन संग्राम में संघर्ष करते हुए विजय पाना ही चरम लक्ष्य है । यह संकल्पना सिर्फ मन में पोषण करना नहीं बल्कि इसे पूरी क्षमता और सामर्थ्य के साथ सचेष्ट होना है ।

" ज्ञान समझदारी के बिना मुर्खता है , व्यवस्था के बिना व्यर्थ है , दया के बिना दीवानापन और धन के बिना मृत्यु है । " - ली

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हमारा लेख को पढ़ने के लिए बहुत -बहुत धन्यवाद । यह लेख मेरे परम मित्र साथ ही सहयोगी आचार्य हरिहर जी का है । उनके कहने पर इसे प्रकाशित किया गया है। 

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