व्यक्ति और समाज निर्माण में सरस्वती शिशु विद्या मंदिर, बहरागोड़ा
Saraswati Shishu Vidya Mandir, Baharagora in Building Person and Society
आज सरस्वती शिशु विद्या मंदिर , बहरागोड़ा एक निजी शिक्षा संस्थान , छत्तीस वर्षों से निर्झर के सदृश चरित्र एवं समाज निर्माण हेतु शिक्षा और संस्कार रूपी अमृतधारा सहित निरंतर है।
विद्यालय चरित्र निर्माण का केन्द्र स्थल है , यहाँ आचार्य एवं आचार्या विद्यार्थियों के अन्तःकरण में सुशिक्षा के साथ सुसंस्कृति और सदाचार भर देते हैं । चरित्र का ही मनुष्य के जीवन में सर्वोत्तम स्थान है । एक सद्चरित्रवान व्यक्ति के व्यक्तित्व की उच्चता एक वैभवशाली एवं पतित व्यक्ति से कई गुणा अधिक है । जबकि एक चरित्रविहीन व्यक्ति समाज की पराकाष्ठा से च्यूत होकर वृक्ष की ऊँची शाखा से पीत पत्र की भाँति धराशायी हो जाता है । चरित्र किसी के गुण विशेष को केवल अभिव्यक्त नहीं करता बल्कि सदाचार सम्बंधी समस्त सदगुणों का प्रकाश पुंज है । यही मनुष्य के जीवन को सार्थक बनाने की कुंजी है , जो उसे जगत में ज्योत्स्नेश जैसा ज्योतिर्मय बनाता है । महान दार्शनिक एवं साहित्यकार टॉलस्टॉय की उक्ति - " मनुष्य रूपी कृपाण की धार चरित्र है ।"
- Stay with The Educational Campus for the best educational contents. You can Subscribe my YouTube channel The Educational Campus for video contents.
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । समाज में ही उसके गुणों का प्रचार - प्रसार होता है । मनुष्य के जन्मोपरांत से ही अनेक वृत्तियाँ होती है , जो परिस्थिति एवं परिवेश के अनुरूप जागृत एवं विकसित होती है । उसके बाल्यावस्था के स्वाभाविक दशा पर समाज का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है । मनुष्य के कोई भी अवस्था , चाहे वह बाल्यावस्था या युवावस्था , में जैसे व्यक्ति की छाया पड़ेगी वह उसी के अनुरूप बन जायेगा और यदि उसके जीवनकाल की परिधि में किसी सद्चरित्रवान व्यक्ति का समावेश हो तो उसमें दया , क्षमा , शील , धैर्य , नम्रता , उदारता , परोपकार , निस्वार्थ सेवा , स्वाभिमान , आत्मविश्वास आदि सदगुणों के भाव प्रगट होते हैं । इसलिए कहा गया है - जैसी संगति वैसा फल ।
मनुष्य समाज के अनुकुल होता है । अत : उसके चरित्र निर्माण में समाज का भी मुख्य भूमिका होती है । एक स्वाभिमानी और चरित्रवान पुरुष अथक पधिक की तरह अपने लक्ष्य तक बिना झुके , बिना रुके पहुँचता है । उसकी वाणी में दैवीशक्ति होती है और उसके मुखमण्डल सूर्य की प्रभा के समतुल्य प्रदीप्तमान होता है। वह समुद्र -सा गहरा आत्मविश्वास और आसमान -सा विस्तृत नैतिकता के गुणों से अलंकृत होता है । ऐसे व्यक्ति अपने सदगुणों से सामाजिक क्षुद्रता और जड़ता को भेदकर अपने लक्ष्याभिमुख मार्ग पर स्वावलम्बी होकर सारे प्रतिकूल परिस्थितिओं के साथ निर्भयता से संघर्ष करते हुए न ही हिन्दुत्व की ओर और न ही साम्प्रदायिकता की ओर, केवल करुणा के अश्रुपूर्ण उन्मुक्त अपार मानविकता की ओर सबके दृढ़ एकाग्र जीवन को ले जाते हैं ।
इस महान गौरवपूर्ण देश भारतवर्ष की महानता और संस्कृति को अक्षुण्ण रखने हेतु ऐसे ही बहुसंख्यक सपूतों की आवश्यकता है , जो ज्ञानी , दयालु , बहुमुखी , बहुदर्शी , विवेकशील , क्षमाशील परोपकारी , अनासक्त , निस्वार्थ , चरित्रवान एवं संस्कर्ता हो । परंतु पाश्चात्य समाज से उन्नत होते हुए भी वर्तमान समाज के नागरिक प्रतिक्षण विषम परिस्थितिओं में हीनतापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है । आज प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य एक - दुसरे के साथ वार्तालाप में , आदान - प्रदान में , क्रियाकलापों में , आत्मीयता का समरसता बनाये रखने में सभी एक दूसरों से दुःखी , अशांत और अवहेलित होते हैं । तदोपरांत भी एक - दूसरे की अवहेलना करने में विपरीतगामी नहीं होते है । एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से स्नेह , प्रेम , प्रीति , आनन्द , सौहार्द जैसे मधुर संबंध की आशा करता है , जो आज विलुप्त होते जा रहे हैं । आज हिंसा , द्वेष , ईर्ष्या, घृणा , द्वन्द्व, लालसा , क्लेश , क्रुरता एवं परस्त्रीगमन जैसे हीन भावनाओं एवं विचारों वाले दुरात्मा काले बादलों के समान आच्छादित होकर समाज एवं देश की सौम्यता को नष्ट कर उसे घोर अन्धकारमय जगत में विलीन कर रहे हैं ।
मनुष्य और समाज एक - दूसरे के सर्वांगीण विकास हेतु एक - दूसरे पर अन्योन्याश्रित हैं । एक समाज का परिवेश जैसा होता है एक व्यक्ति उसी के अनुरुप हो जाता है । उसी तरह मनुष्य के अनुरूप समाज का निर्माण होता है , जो अपने आचरण के माध्यम से सामाजिक मनुष्य को सुशिक्षा प्रदान कर सकें । श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा है - " शिक्षा प्रदान करने के पूर्व से ही शिक्षकों को सही आचरण करना चाहिए । इसी तरह जो शिक्षा देते हैं , उन्हें आचार्य यानी आदर्श शिक्षक कहा जाता है । इसलिए विद्यार्थियों को शिक्षा दान हेतु उन्हें अवश्य ही शास्त्रों के आदर्शों का अनुसरण करना चाहिए । यदि कोई शास्त्र वहिर्भूत मन - गढ़ंत कहानी शिक्षा देकर शिक्षक होना चाहते है , उससे कदापि लाभ नहीं वरन क्षति पहुँचती है । मनुसंहिता से भी हमें शुद्ध और समतापूर्ण समाज निर्माण करने की शिक्षा प्राप्त होते हैं एवं इन समस्त प्रकार के शास्त्र निर्देश के अनुसार समाज का सुनिर्माण करना ही मनुष्य का परम कर्तव्य है ।
गुणीजनों की शिक्षा इस प्रकार के आदर्श शास्त्रों के समरुप होती है। जो व्यक्ति अपने परमार्थिक जीवन स्तर को उन्नत करना चाहते हैं , उनके आदर्श नीति अनुसरण करना चाहिए , जो महान आचार्यगण अनुशीलन करते रहते हैं । श्रीमद्भागवतगीता में भी यह उल्लेख है कि महान पूर्वज या वर्तमान महान गुणी व्यक्ति के मार्गदर्शन या पदपटली को अनुसरण कर अपना जीवन निर्वाह करना चाहिए , इससे परमार्थिक जीवन में उन्नति होती है । राजा , राष्ट्रप्रधान , पिता और आचार्य स्वाभाविक रूप से निरीह जनगण के पथप्रदर्शक हैं । जनसाधारण के परिचालन करने का उनके ऊपर महान दायित्व होता है । इसलिए उनका उचित है , शास्त्रों की वाणी उपलब्धि कर उसके निर्देशानुसार जनसाधारण का परिचालन करना तथा आदर्श समाज का निर्माण करना । यह कोई असंभव कार्य नहीं है , परन्तु इसके फलस्वरुप जो समतापूर्ण स्वर्णिम समाज का गठन होगा , उसमें प्रत्येक मानव जीवन सार्थक होगा ।
अत : आज हम सभी सम्मिलित होकर स्वनिर्माण एवं स्वर्ण समाज निर्माण करने का संकल्प करते हैं ।
"यद् यदाचरति श्रेष्ठस्तत्त देवेतरो जनः ।
स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।
( अर्थ - श्रेष्ठ व्यक्ति जैसा आचरण करते है , जन - साधारण उनका अनुकरण करते हैं । वे जिसे प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं , सभी उसका अनुसरण करते हैं । )
- श्रीमद्भागवतगीता , कर्मयोग , श्लोक -21
A
0 Comments